{{ कुपुत्रो जायेत क्वचिदपि कुमाता न भवति }}
चरित्रहीनों से ईर्ष्या सदा से रही है। मुझे लगता है कि चरित्र सँवारने से कठिन है चरित्र का हनन करना। फिर भी, मनुष्य प्रयास तो करता ही है। वह तो गर्भ से ही संघर्षशील है। बच्चा जब माँ के पेट पर लात मारता है, मतलब वो स्वस्थ है। जो बच्चा चुपचाप लुंज-पुंज बैठा है, शंका होती है कि अंदर पानी वगैरा तो ठीक है? लात क्यूँ नहीं मार रहा? मनुष्य का चरित्र ही है जन्मदात्री की पेट पर लात मारना। जो नहीं मारता, उसके जीवित होने पर शंका है। और वो खूबसूरत क्षण जब किसी शोरूम के उद्घाटन की तरह माँ-बच्चे के बीच का फीता काटा जाता है। इस डोर से मुक्त होते ही बच्चा रोता है, माँ हँसती है। बच्चा नहीं रोता तो माँ चिंतित हो जाती है कि बच्चा रोया क्यों नहीं? उसका चरित्र ही है रोना और माँ से अलग हो जाना। वो हठी बच्चा फिर भी छाती पर चढ़ कर माँ का शरीर सोखता है, दाँत काटता है और माँ उस दिन का इंतजार करती है जब वह यह हठ त्यागे। इस नग्न चरित्र का आखिर अंत होता है, जब दुनिया सिखाती है कि यह लात मारना, संबंध तोड़ना, दहाड़ मार रोना, छाती पर चढ़ कर खून सोखना सब गलत है। पोलियो बूँदों की तरह चरित्र का नया टीका देती है। पुत्र तो कुपुत्र ही जन्म लेता है, सुपुत्र तो दुनिया बनाती है। जो दुनिया को ठेंगे पर रखते हैं, वो कमीने चरित्रहीन ही रह जाते हैं। और उनपे रश्क तो आता ही है, कि इतनी बड़ी दुनिया ठेंगे पर आखिर रखा कैसे?
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