सुभाष चन्द्र बोस, 23/01/1897 - 18/08/1945 एक आर्तनाद शोर जो गुमनामी में खो गया ! दुर्भाग्यपूर्ण =============================
सुभाष चन्द्र बोस, 23/01/1897 - 18/08/1945
एक आर्तनाद शोर जो गुमनामी में खो गया ! दुर्भाग्यपूर्ण
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18 अगस्त 1945 इस तिथि पर वास्तव में नेता जी की मृत्यु हुई थी ! यह सच स्वीकार कर पाना मेरे लिए हमेशा संदिग्ध रहा है, असम्भव रहा है ! इस लिए मैं आज उन्हें श्रद्धांजलि नही देना चाहती, किन्तु प्लेन क्रैश की एक घटना जो आज के दिन घटी थी और नेता जी की मृत्यु का समाचार पूरी दुनिया मे वायरल किया गया था उसे ध्यान में रखकर आज के दिन नेता जी के अटूट देश प्रेम और, देश की आजादी के लिए किए गए उनके अथक प्रयासों, उनके विजन को, एवम आजाद हिन्द फौज के गठन, को लेकर अपने पाठकों के साथ एक संवाद करना चाहती हूं यथा :
नेता जी सुभाष चन्द्र बोस वाया आजाद हिन्द फौज
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आज़ाद हिन्द फ़ौज आज भी लाखों भारतवासियों के दिलों में अपना सम्मान जनक स्थान बनाए हुए है।
अंग्रेजों ने भारत पर 190 वर्ष शासन किया। इस काल में महात्मा गाँधी के महान व्यक्तित्व, उनके संघर्ष,, अहिंसावाद और असहयोग आंदोलन के दर्शन की छाप अमिट है। जब इंडियन नेशनल कांग्रेस ने ‘भारत छोड़ो’ आंदोलन बड़ी शान्तिपूर्ण ढंग से चला रखा था उसी समय किसी दूसरी जगह इन विदेशी शासकों के विरुद्ध एक सुसंगठित युद्ध की तैयारी चल रही थी इसी उद्देश्य के लिए सुभाष चन्द्र बोस ने आज़ाद हिन्द फ़ौज का गठन किया गया था !
द्वितीय विश्वयुद्ध के समय 17 जनवरी 1941 की पूर्व बेला में अपने कलकत्ता स्थित घर से नाटकीय ढंग से पलायन एवं दस सप्ताह पश्चात् जर्मनी आगमन सुभाष चन्द्र बोस के जीवन की अनेक घटनाओं में से एक महत्त्वपूर्ण घटना है। अंग्रेज शासकों को आमरण अनशन का भय दिखाकर उन्होंने दिसंबर 1940 में कारागार से मुक्ति पाई। तत्पश्चात अपने एलगिन स्थित घर के एक कमरे में कुछ सप्ताह एकांतवास किया और मिलने वाले व्यक्तियों से भेंट करना वर्जित कर दिया। इस अवधि में उन्होंने अपनी दाढ़ी पर्याप्त बढ़ा ली। अब बढ़ी हुई दाढ़ी में और बिना चश्मा पहने उन्हें कोई पहचान नहीं सकता था।
अंग्रेज शासकों का गुप्तचर विभाग बहुत सतर्कता से, यहां तक कि उनके घर के आस-पास पेड़ों पर चढ़कर दिन-रात उनकी निगरानी कर रहा था। उन सबकी आँखों में धूल झोंककर मौलवी के वेशभूषा में सुभाष एक कार में बैठकर रात्रि के अंधकार में घर से बाहर निकल गये। उनका भतीजा शिशिर कुमार बोस कार चलाकर उन्हें कलकत्ता से दो सौ मील दूर स्थित गोमोह रेलवे स्टेशन ले गया।
गोमोह उन्हें इस कारण जाना पड़ा क्योंकि कलकत्ता के आस-पास स्थित अन्य स्टेशनों पर गुप्तचरों द्वारा बड़ी सतर्कता से उनकी निगरानी की जा रही थी। गोमोह से उन्होंने पेशावर के लिए गाड़ी पकड़ी और यात्रा के दौरान अपने आपको किसी कार्यवश पेशावर जाने वाला एक बीमा एजेंट बताया। सुभाष और उनका एक हिन्दू साथी अफ़गानिस्तान और भारत के मध्य स्थित जनजातियों के क्षेत्र को पार करते हुए पेशावर से काबुल पठान की वेशभूषा में पहुँचे। इस सीमा क्षेत्र में पासपोर्ट और चुंगी आदि अवरोधों से बचने के लिए उन्हें टेढ़े-मेढ़े रास्तों पर चलने में बहुत-सी कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। इन सब कठिनाइयों को सहन करते हुए अफगानिस्तान की शीत ऋतु में संध्या समय, जबकि तापमान हिमांक पर था, वे बहुत थके हुए काबुल जा पहुँचे।
काबुल प्रवास के समय उनके साथी ने उन्हें अपना मूक और बधिर भाई जिसे वह तीर्थ यात्रा पर ले जा रहा था बताया। वहाँ उन्होंने अपने प्रवास के अंतिम दिनों में पठानों की वेशभूषा अपनाई जिससे कि बाजार में वहां के नागरिकों का ध्यान उनकी ओर आकृष्ट न हो और उन्हें कोई पहचान न सके। दो मास की अनिवर्चनीय कठिनाइयों, गोपनीयता, दुविधा, चिंता, शारीरिक कष्ट और मानसिक क्लेश के पश्चात् वे 1941 की अप्रैल के प्रारंभ में मास्को होते हुए सुरक्षित बर्लिन पहुँचे।
सुभाष चंद्र बोस का भारत से यह रोमांचकारी निर्गमन योजनाबद्ध था। इसे भारत के स्वतन्त्रता आंदोलन में एक महत्वपूर्ण मोड़ कहा जा सकता है। उनका यह दृढ़ विश्वास था अन्य देशों की सशस्त्र सहायता बिना भारत भूमि से अंग्रेजी शासन नहीं हटाया जा सकता। यही उनकी सुनिश्चित कूटनीति थी। इसी कूटनीति के अनुकूल उन्होंने भारत को स्वतन्त्र कराने की योजना अपने अन्तः मन में बनाई। सामयिक अंतर्राष्टीय परिस्थितियों के अनुसार उन्होंने अपनी योजना में परिवर्तन किये परंतु उनकी मूल नीति अपरिवर्तित रही।
वे रूस से ही कार्य आरंभ करना चाहते थे परंतु व्यवहारिक होने के नाते उन्होंने अपना कार्य जर्मनी से ही आरंभ करके संतोष किया। उन्होंने बर्लिन में आज़ाद हिंद केन्द्र की स्थापना की और जर्मन भूमि पर आज़ाद हिंद फौज आयोजित की। उनका यह कार्य उनकी पूर्व एशिया में भावी महान उपलब्धियों का पूर्वाभ्यास था। 1943 में जर्मनी से पनडुब्बी द्वारा 90 दिन की समुद्री यात्रा करके वे जापान पहुंचे। जापान सरकार द्वारा उन्हें सब प्रकार की सहायता का पूर्ण आश्वासन प्राप्त हुआ। उन्होंने पूर्व एशिया में भारत के स्वतंत्रता आंदोलन का नेतृत्व ग्रहण किया तथा आज़ाद हिंद फौज की बागडोर सम्भाली और भारत-बर्मा के पार मुक्ति सेना की अगुआई की। आजा़द हिंद फौज (आई.एन.ए.) ने मार्च 1944 को सीमा पार करके मनीपुर में मोरांग स्थान पर 14 अप्रैल को तिरंगा फहराया। तत्पश्चात बर्मा में भारी वर्षा के कारण आई.एन.ए. के कार्य क्षेत्र में भारी बाढ़ आ गई और इस कारण भारतीय सेना सफलता विफलता में बदल गई। रसद मिलना बंद हो गई। ऐसी स्थिति में आई.एन.ए. के सैनिकों ने प्रत्यावर्तन करना आरंभ किया।
सैनिकों में मलेरिया और पेंचिश का रोग फैल गया। शत्रु सेना आई.एन.ए.की पंक्ति को पार करके रंगून की ओर बढ़ने लगी। अप्रैल 1945 में नेताजी रंगून से सिंगापुर चले गये। अगस्त मास में जब युद्ध समाप्ति की घोषणा हुई वे सिंगापुर से सैगोन पहुंचे। और वहां अपनी अंतिम यात्रा के लिए एक लड़ाकू विमान में सवार हुए। पूर्व एशिया में आई. एन. ए. के सैनिकों को अंग्रेज बंदी बनाकर भारत ले आये और उन पर लाल किले में ऐतिहासिक अभियोग चलाया। इस मुकदमे के कारण जो देशव्यापी हलचल हुई उससे अंग्रेजों के मन में घबराहट पैदा हो गई और अंत में उन्होंने भारत छोड़ने का निश्चय किया और 15 अगस्त 1947 को उन्होंने भारत छोड़ दिया।
सिंगापुर छोड़ते समय 15 अगस्त 1945 को आई.एन.ए. के सुप्रीम कमांडर सुभाष चंद्र बोस ने अपने अंतिम दैनिक आदेश में सैनिकों से कहा, ‘‘दिल्ली पहुँचने के अनेक रास्ते हैं और दिल्ली अभी भी हमारा अंतिम लक्ष्य है।’’ उन्होंने इस विश्वास के साथ अपना आदेश समाप्त किया कि ‘‘भारत आज़ाद होगा और जल्दी ही आज़ाद होगा।’’
15 अगस्त 1947 को भारत आज़ाद हुआ परंतु साथ-साथ देश का विनाशकारी विभाजन भी हुआ। अखण्ड भारत का जो सपना सुभाष बाबू ने देखा था देश के बटवारे ने उसे तोड दिया था !
सुभाष बाबू मात्र 15 वर्ष के थे जब उन पर महत्वपूर्ण प्रभाव स्वामी विवेकानन्द, स्वामी रामकृष्ण परमहंस की शिक्षा का पड़ा। स्वामी विवेकानन्द से उन्होंने यह शिक्षा ग्रहण की कि मानव जाति की सेवा ही देश सेवा है और राष्ट्र धर्म से बडा मानव का कोई धर्म नही !
सुभाष बाबू को अरविंद घोष ने भी बहुत प्रभावित किया था ! इन तीन महापुरूषों के प्रभाव की ही देन थी जो सुभाष बाबू राष्ट्रवाद के चरम पर पहुंच कर आजाद अखण्ड राष्ट्र का सपना साकार करने में लगे !
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नमन मां भारती के हृदय हार कोटि कोटि नमन तुम्हें !!
साभार :
भारद्वाज अर्चिता
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